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मरी हुई औरतें

वंदे मातरम्
वंदे मातरम्
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मेरे गांव में हत्याएं
मर्दों की नहीं होती हैं
सिर्फ औरतें को मारा जाता है,
कभी दहेज के नाम
कभी जिस्म के बासी हो जाने पर
कभी बांझपन के नाम पर
और अकसर
लड़का न जन पाने के नाम पर,
बेटियां जनने से
कोख को पवित्र कहां मान पाता है
समाज?
भले ही लड़का जवान होते ही
मां-बाप को लात मारकर
घर से बाहर निकाल दे
पर है तो लड़का ही
कुल का दीपक!
मेरे गांव में औरतों को मारने वाले
जेल नहीं जाते
न ही कभी उन्हें सजा होती है
अलबत्ता
इनाम में मिलती है
नई जवान कमसिन औरत
लड़का पैदा करने के लिए,
मां तो वो पहले ही बन चुकी होती है
बिन बच्चा जने,
न पुलिस न थाना
न चोर न चौकीदार
कोई मुंह नहीं खोलता,
मेरे गांव में
मरते ही मरी औरतें कुलटा हो जाती हैं
कभी उनका अवैध संबंध
ससुर से हो जाता है
कभी देवर से
कभी पड़ोसी से
आखिर मारने के लिए कोई तो वजह चाहिए न?
मरी हुई औरतों से कोई
सहानुभूति नहीं रखता,
गांव की औरतें कहती हैं
चाल-चलन नहीं ठीक था
झगरू से बतुआती थी,
निरहुआ रोज मिसकाल मारता था
तकिया के तरे गुब्बारा मिला था
और भी दो चार दबे राज बाहर आ जाते हैं
ये सारे तर्क ये सारे तथ्य
झूठ पर बुने गए होते हैं
हत्या को न्यायोचित कैसे ठहराए मर्द जात
इन सबूतों के बिना?
वो मरी औरतें लौट कर नहीं आतीं
करा दी जाती है नारायणबलि
मंत्रोच्चार के बीच
नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावकः
न चैनं क्लेदयन्त्यापो न शोषयति मारुतः
साल दर साल
कोई न कोई औरत मरती है
कभी गर्भवती होकर
कभी बांझ रहकर
चिता सुलगती रहती है
अखंड ज्योति की तरह
सनातन, शाश्वत।
मेरा गांव रोता नहीं है
होली भी मनती है
दशहरा, दीपावली
नाग पंचमी भी
क्योंकि
मरी हुई औरतें की चीख
गांव में सुनाई ही नहीं देती
संवेदना उपजे कहां से??

– अभिषेक शुक्ल

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