Menu
blogid : 14028 postid : 1316674

गाली तू न गयी मेरे मुंह से

वंदे मातरम्
वंदे मातरम्
  • 101 Posts
  • 238 Comments

गाली सभ्य समाज की असभ्य सच्चाई है। सभी वाद वाले व्यक्ति इसे समान रूप से प्रयोग में लाते हैं।
अखंड रामचरित मानस का जब पाठ होता है तो एक संपुट चुना जाता है। जिसे बार-बार पढ़ा जाता है। आधुनिक प्रगतिवादी और रूढ़िवादी प्रजाति के जीव गालियों को सम्पुट की तरह प्रयोग में लाते हैं। बहन और मां तो सॅाफ्ट टार्गेट हैं।
आश्चर्य तब होता है जब खुद के लेखन और विचारधारा को प्रगतिशील बताने वाले लोगों के लेखों में भी गालियां भाषाई सौन्दर्य की तरह प्रयुक्त होती हैं। जिस रफ्तार से गालियां लिखी जा रही हैं, मुझे विश्वास हो रहा है कि किसी दिन कोई साहित्य का मठाधीश गाली को भी साहित्य की एक विधा घोषित करेगा।
एक ग़लतफ़हमी थी मुझे कि साहित्यकार और पत्रकार सभ्य और शिष्ट भाषा में बात करते हैं और लिखते हैं। आभासी दुनिया ने मेरा ये भ्रम भी तोड़ दिया है।
गाली पुरुषवादी मानसिकता के पोषक लोग ही नहीं देते हैं। कई नारीवादी लेखक,लेखिकाओं और विद्यार्थियों को भी गाली बकते सुना है। उनका भी सम्बोधन मां, बहन की गाली से ही होता है।
एक मोहतरमा हैं जिन्हें मैं जानता हूं। दूर से हाय-हेल्लो होती है। इन दिनों कार्ल मार्क्स की उत्तराधिकारी ही समझती हैं वे ख़ुद को। उनसे बड़ा फेमिनिस्ट मैंने कहीं देखा नहीं है।( कुछ लड़के हैं जो उन्हें भी टक्कर देते हैं।)
एक दिन कैंटीन से बाहर निकलते वक़्त पैर में उनके कोई लकड़ी चुभ गई। लकड़ी की बहन को उन्होंने कई बार याद किया। बेचारी लकड़ी की मां-बहन सबको निमंत्रण दिया गया।
ख़ैर बेचारी लकड़ी का क्या दोष। निर्जीव है वो भी शाखों से टूटी हुई ऐसे में कैसे अपनी बहन संभाले?
इनसे एक मासूम से लड़के ने पूछ लिया कि आप तो नारीवाद पर लेक्चर देते नहीं थकती हैं। लेकिन गाली मां-बहन से नीचे देती ही नहीं हैं आप। उन्होंने बेचारे लड़के को पहले तो लताड़ पिलाई फिर गाली को विमेन एम्पावरमेंट से जोड़ दिया।
न तो मुझे ही गाली वाला एम्पावरमेंट समझ में आया न उस बेचारे लड़के को।
मैं भी मेघदूत मंच पर बैठे-बैठे सब देख रहा था।
तब वहीं बक्काइन के पेड़ के नीचे मुझे ये आत्मज्ञान मिला कि ये सब ढकोसले प्रगतिशील होने के अपरिहार्य अवयव हैं। आप महिला हैं और मां-बहन की गाली नहीं देती हैं तो क्या ख़ाक फैमनिस्ट हैं? चिल्लाइए, समाज को धोखा दीजिए। बात सशक्तीकरण की कीजिए पर शोषण का एक मौका हाथ से न जाने दीजिए।
जिस दर्शन के अनुयायी होने का हम ढिंढोरा पीटते हैं दरअसल वो हमारे महत्वाकांक्षाओं को तुष्ट करने का साधन मात्र है।
नारीवादी पुरुषों पर क्या कहूं? सब मोह माया है।
उनका नारीवादी होना हमेशा संशय में रखता है मुझे। कब ये लोग किसे शिकार बना जाएं कहा नहीं जा सकता।
बेड और विमेन एम्पावरमेंट को एक ही तराजू में तौलते मिलते हैं ये लोग। लड़की बस लड़की होनी चाहिए चाहे साठ साल की हो या नौ साल की। समदर्शी होने के कारण सबको एक ही नज़र से देखने की आदत होती है इनकी। इनका भी एम्पावरमेंट कमर से शुरू होता है कमरे तक जाता है। फिर रास्ता बदल लेते हैं। लड़की पूछती रह जाती है मुझे भूल गए? इनका जवाब होता है –
कौन? तुम्हें पहचाना नहीं।
एक बड़े पत्रकार हैं। आम आदमी या पत्रकारिता के सामान्य विद्यार्थी के लिए तो इतने बड़े कि कई सीढ़ी लगा कर उन तक पहुंचना पड़े। नारी मुक्ति, नारी सशक्तिकरण के नाम पर दर्जनों वीडियो यू ट्यूब पर मिल जाएंगी आपको। बड़े से बड़े अख़बार, हिन्दी और अंग्रेजी दोनों भाषाओं के चाहते हैं कि सर कुछ लिख दें हमारे अख़बार में।
बीते दिनों उनसे मिला। मेरे साथ मेरे एक सहपाठी भी थे।ज़्यादातर वक़्त उन्होंने ही बात किया। ख़ूब बातें हुईं। जिस तरह की बातें वे कर रहे थे उस तरह की बातों में मेरी अभिरुचि कम है। इसका कारण मेरा रूढ़िवादी होना भी हो सकता है या इसे इस तरह भी आप समझिए कि मेरे पारिवारिक संस्कार मुझे ऐसी बातों को अच्छा नहीं मानने देते।
उनकी नज़र में भी महिलाएं केवल मनोरंजन मात्र हैं। पत्नी है पर बहुत सारे एक्स्ट्रा मैरिटल अफेयर भी हैं। काम दिलाने के बहाने भी बहुत कुछ काम करते हैं। बॅालिवुड की भाषा में जिसे कास्टिंग काउच कहते हैं। इनकी भी ख़ास बात ये है कि गाली को संपुट की तरह ज़ुबान पर रखते हैं।
ऐसे बहुत से लोगों को जानता हूं जिन पर नारीवादी होने का ठप्पा लगा है पर सबसे ज्यादा शोषण के मामले भी इन्हें के खिलाफ मिलते हैं। ये लोग गाली और सेक्स को विमेन एम्पावरमेंट मानते हैं।
दो दशक हो गए लेकिन अब तक एम्पावरमेंट का ये फार्मूला समझ में नहीं आया। सच में ऐसे लोग समाज पर धब्बा होते हैं।
भारतीय जनसंचार संस्थान में आकर बहुत सारे नए तथ्यों से पाला पड़ा है। कई सारे खांचे होते हैं इस दुनिया में। जो जिस ख़ांचे को सपोर्ट करता मिले समझ लीजिए तगड़ा डिप्लोमेट है। मुखौटा लगा रखा है सबने। बाहर से कुछ और अंदर से कुछ और। रंगा सियार की तरह।
कोशिश कीजिए किसी वाद के चक्कर में न पड़ें।
अगर पड़ गए हैं तो पहले थोड़े रुढ़िवादी संस्कार जरूर सीख लें। आपको इंसान बनाए रखने में बहुत काम आएंगे। कई बार लोग कहीं से पढ़-सीख कर आएं हों फिर भी ओछी हरकतें करने से नहीं चूकते क्योंकि उनकी प्रवित्ति ही निशाचरों वाली होती है। ऐसे में उनसे केवल सहानुभूति ही रखी जा सकती है। कोई ऐसा सॅाफ्टवेयर बना नहीं जो इन्हें इंसान बना दे।
गाली कोई भी देता हुआ अच्छा नहीं लगता। महिला हो, पुरुष हो या किन्नर हो।
कुछ चीज़ें कानों में चुभती हैं। गाली भी उनमें से एक है। किसी की मां-बहन तक जाने से पहले सोच लिया करें कि उन्होंने आपका कुछ नहीं बिगाड़ा है। जिसने बिगाड़ा है उससे सीधे भिड़िए आपको अधिक संतुष्टि मिलेगी।
गाली को तकिया कलाम न बनाएं, इससे भी अच्छे शब्द हैं जिन्हें प्रयोग में लाया जा सकता है। कोई कितना भी विद्वान क्यों न हो जब गाली देता है तो असलियत सामने आ जाती है। लग जाता है कि पढ़ाई ने केवल दिमाग की मेमोरी फुल की है, व्यवहारिकता के लिए खाली जगह को डीलीट कर के। भाषा अधिक महत्वपूर्ण है विषय से। पहले इसे सीखा जाए फिर विषय पढ़ा जाए। नि:सन्देह अच्छे परिणाम सामने आएंगे। व्यक्ति के अच्छा वक्ता होने की सम्भावनाएं बढ़ जाती हैं।
जानते हैं! गाली मानसिक रूप से पंगु और कुंठाग्रस्त लोग देते हैं। आप नहीं न पीड़ित हैं इस रोग से ?
– अभिषेक शुक्ल

Read Comments

    Post a comment

    Leave a Reply