Menu
blogid : 14028 postid : 1278256

शहर की तंग गलियां

वंदे मातरम्
वंदे मातरम्
  • 101 Posts
  • 238 Comments

शहर के तंग गलियों में टूटे हुए सपनों की एक लंबी कहानी है. एक अज़ीब सी कुंठा में लोग जीते हैं.कभी कई दिनों तक भूखा रह जाने की कुंठा तो कभी दिहाड़ी न मिलने की कुंठा, कभी सभ्य समाज की गाली तो कभी दिन भर की कमाई को फूंकने से रोकने के लिए शराबी पति की मार, कभी पति का पत्नी को जुए में हार जाना तो कभी बच्चों का नशे की लत में डूब जाना. ये हालात किसी फिल्म की पटकथा नहीं हैं बल्कि सच्चाई है उन झुग्गी-झोपड़ियों की जहाँ हम जाने से कतराते हैं.
इन गलियों की तलाश में निकलने से पहले मैंने बस कहानियां पढ़ी थीं इनके बारे में . नज़दीक से कुछ देखा नहीं था.जब पास गया तो महसूस हुआ कि आज़ाद हुए भले ही दशकों बीत गए हों पर इनके हालात न तब बदले थे न अब बदले हैं. न जमीन का ठिकाना न आसमान का.सिर्फ इनकी ही नहीं इनके पूर्वजों की भी जिन्हें गुज़रे एक जमाना हो गया. आज यहाँ तो कल वहां .भटकना अब आदत सी बन गयी है…
कटी-फटी झोपड़ पट्टियां, बरसाती से तनी झोपड़ियों में रहने वाले लोग जिनका ठिकाना शायद उन्हें भी मालूम नहीं है.इनकी तरह इनके काम का भी कोई ठिकाना नहीं है. कभी कच्ची शराब तो कभी कचरे की तलाश , कभी भांग तो कभी गांजे की तस्करी..दिन भर रिक्शा चलाना तो शाम को पौवा चढ़ाना..हाँ! शायद ये तकलीफें कम करने का कोई सस्ता सा जुगाड़ लगता है इन्हें.कुछ ऐसी ही कहानियां हैं इन झुग्गी-झोपड़ियों में रहने वाले लोगों की.
इनका आज जैसा है, कल भी वैसा ही रहेगा…क्योंकि इनकी गणना ही नहीं होती हमारे सभ्य समाज में, अपने-अपने स्वार्थ साधने में लगे लोगों को इतनी फुरसत कब है कि इनकी सुधि लें.
टहलते-टहलते कुछ बच्चे भी मिल गए. चॉकलेट-बिस्कुट देख कर सब दौड़े चले आये.फटे कपडे, किसी के पैर में चप्पल तो कोई नंगे पावं, ऐसे झपटे जैसे जन्मों से भूखे हों.मैंने एक से पूछा कि पढ़ने जाते हो? तो उसने बड़ी मासूमियत से जवाब दिया कि नहीं..मैं तो पैसे मांगने जाता हूँ. मैंने पूछा कि स्कूल क्यों नहीं जाते तो उसने कहा कि स्कूल जाऊँगा तो बापू मारेगा.
गोलू,मोलू,चिनकू,छोटू और न जाने कितने ऐसे बच्चे हैं जो कभी स्कूल नहीं जाते…इनकी पाठशाला शुरू होती है सड़क पर और ख़त्म भी वहीं होती है, बस इनके हिस्से इतवार नहीं आता.
जब भी कोई अजनबी मिलता है तो कहते हैं- भैया! भूख लगी है. कुछ खाने को दो.इनका पेट हमेशा खाली रहता है . कुछ खाने को दो तो भी पैसा मांगते हैं. पैसा मांगने की एक वजह ये भी है कि ये अपने मां-बाप के कमाई की मशीन हैं. ये बच्चे कभी किसी गैंग का शिकार बनते हैं तो कभी खुद का गैंग बनाते हैं. इनकी आँखों में न तो स्कूल के सपने हैं न ये स्कूल जाना चाहते हैं.
छः से आठ वर्ष तक की उम्र पूरी करते-करते इन्हें बीड़ी, सिगरेट, शराब या भांग की लत लग चुकी होती है…उम्र बढ़ती है तो साथ-साथ नशे की लत भी और हावी होती चली जाती है…फिर ये सिलसिला तब-तक नहीं थमता जब तक की मौत न हो जाए.
हम आधुनिक हो रहे हैं. वास्तविक दुनिया के सापेक्ष हमने एक आभासी दुनिया भी बना ली है.फिर भी हमारे समाज में ही एक बड़ी आबादी ऐसी जिंदगी जीती है.जीवन की अपरिहार्य आवश्यकताएं भी पूरी नहीं होतीं.रोटी के लिए रोज़ लड़ना पड़ता है,औरतों की सिसकियाँ..भूखे बच्चों का रोना..बीमारी से मरते हुए लोग..तिल-तिल मरते ख़्वाब..चैन से सोने नहीं देते.ऐसे में कई बार लगता है कि ये डिज़िटल इंडिया, वर्चुअल वर्ल्ड , इनक्रेडिबल इंडिया , मेक इन इंडिया के स्लोगन बेईमानी हैं समाज से…ये कैसा समाज है जहाँ समता नहीं है?
हम उम्मीद करते हैं कि एक दिन जरूर आएगा जब परिस्थितियां बदलेंगी। जब सबका अपना घर होगा, जब कोई भूखा नहीं सोयेगा, जब सबकी बुनियादी ज़रूरतें पूरी होंगी…
पर कब तक? शायद ये भागवान को भी नहीं पता होगी..कई दशहरा बीतेंगे , कई दिवाली बीतेंगी , कई प्रधानमंत्री जन्म लेंगे पर इनके हालात कभी नहीं बदलेंगे .

Read Comments

    Post a comment

    Leave a Reply