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नयनों से ‘अभिषेक’

वंदे मातरम्
वंदे मातरम्
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सखे! क्या स्मृति तुमको शेष
खुले थे स्वतः तुम्हारे केश
किया हमने एकांत में बात
आह! वह संकल्पों की रात,
अरे! वह गगन सुता का दृश्य
और उसमें स्वर्णिम सी नाव
प्रकाशित अन्तःमन का कक्ष
ब्रम्ह का अद्भुत अकथ प्रभाव,
बढे हम तीर्थाटन की ओर
नहीं लाख पाये कोई छोर
कहाँ थी दिशा कोई भी ज्ञात
तुम्हारी हर लीला अज्ञात
नहीं था कोई भी उद्देश्य
नहीं अनुमानित कोई विधेय
विश्व ने घोषित किया प्रमेय
सखे! तुम मानव से अज्ञेय,
एक सागर जो है तटहीन
सकल ब्रम्हांड उसी में लीन
वहीं पर कहा प्रणय के गीत
मित्र तुम पर अर्पित संगीत,
स्वरों का कौतूहल आह्लाद
लहरों में अद्भुत उठा प्रमाद
ध्वनित होती मधुरिम झंकार
मिला संसार का नीरव प्यार
तरंगों की गतियां उत्ताल
मूढ़मति होने लगा निहाल,
शब्दों के बंधन से उन्मुक्त
भावना स्वतः हुई अभियुक्त
सकल ब्रम्हाण्ड यदि हुआ सुप्त
स्वप्न का समय नहीं उपयुक्त,
सहसा मन नें सुनी पुकार
अभी तो हिय में शेष विकार,
यदि कर्तव्य कर्म हों शेष
जीव को मिलता नहीं प्रवेश.
द्वीप से मुड़े स्वतः ही पांव
नयनों से ओझल हुआ वो गांव,
छाने लगी उषा चिर काल
विश्व में व्यापित मायाजाल
खग-विहग लौटे अपने द्वीप
ज्यों निशा आने लगी समीप
जाने किसने फेंका था पाश
हुआ मति का मेरे अवकाश
और सम्यक दृष्टि से हीन
अहं में हुआ मेरा मन लीन,
यही पथ की बाधा थी मित्र!
धूमिल हुआ तुम्हारा चित्र,
नयनों पे कुहरे का है प्रभाव
कहीं तो भटक रही है नाव
नाव में हुआ है ऐसा छेद
डुबोता मेरे मन के भेद,
सुझाओ मुझको ऐसी राह
नाव को मिलती रहे प्रवाह,
विचरण करूँ सदा स्वछन्द
कभी न गति मेरी हो मंद,
मुझे बस वही दिशा मिल जाए
जहाँ दर्शन शिव का मिल जाए
कामना जहाँ गौण हो जाए
कौतूहल जहाँ मौन हो जाए,
अभीप्सित मुझे वही स्थान
जहाँ अवलोकित हों भगवान,
मेरी इच्छा है केवल एक
करूँ मैं नयनों से ”अभिषेक”।।
-अभिषेक शुक्ल

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