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सावन लग गया है लेकिन पता नहीं चल रहा है। आज गाँव की बहुत याद आ रही है। मेरे मन में जो छोटा सा कवि बैठा है न वो इस महीने में कुछ ज्यादा ही सक्रिय हो जाता था गाँव में। जब बारिश होती थी तो अक़्सर मैं भीगते हुए निकल पड़ता था खेतों की ओर….बादलों से बात करने। मेरे खेत के आस-पास खूब सारे तालाब हैं। बारिश में तालाब की सुंदरता कुछ अधिक ही बढ़ जाती है…हरी-भरी धरती और सुन्दर सा गगन…इसी ख़ूबसूरती को टटोलने मैं घर से निकलता था..कभी अकेले तो कभी दो-चार छोटे बच्चों के साथ…हाँ बच्चों के साथ घूमना मुझे बेहद पसंद है..सावन जितना ही…।
पुरवाई हवा…काले बादल…खूबसूरत मौसम भला किसे न अपनी ओर खींच ले….पर याद सिर्फ इसीलिए नहीं आई है…
सावन भर गाँवों में गली-गली में आल्हा और कजरी गाया जाता है। कजरी महिलाएं गाती हैं और पुरुष लोग आल्हा। मुझे दोनों बहुत पसंद है। शाम को जब भी कोई काकी या भौजी, अम्मा(दादी) से मिलने आतीं तो मैं उनसे कजरी ज़रूर सुनता…एक हैं पड़राही भौजी…दादी के उम्र की हैं पर भौजी लगती हैं…मज़ाक भी खूब करती है…उनके गाने का तो मैं फैन हूँ। कजरी ऐसे गाती हैं जैसे आशा ताई गया रही हों।
सावन व्यर्थ है अगर आल्हा न सुना जाए.आल्हा सुनाते हैं बेलन भाई….वीर रस का क्या अद्भुत गान है आल्हा। बेलन भाई का अंदाज़ भी निराला है जब आल्हा सुनाते हैं तो खुद ही सारे चरित्र निभाने लगते हैं..सावन भर बेलन भाई रात को आल्हा सुनाते..एक लड़ाई ख़त्म होती की दुसरे की ज़िद करता..10 बजे से कार्यक्रम 12 बजे रात तक चलता..गाँवों में इतनी रात तक कोई नहीं जगता..पर मैं, पापा, मम्मी और अम्मा श्रोता मण्डली में थे..बेलन भइया भी पूरे मन से सुनाते..जब थक जाते तो कहते- “बाबू अब नहीं होस् परत थै, भुलाय गय हन, बिहान पढ़ि के आइब तब सुन्यो।”
रात के एक बजे घर पहुँचते थे भइया भौजी तो उन्हें बेलन से ही पीटती रही होंगी..पर बताते नहीं थे…कहते बाऊ तोहार भौजी लक्ष्मी हिन्…
मैं भी कहता हाँ भइया..सही कहत हौ।
आल्हा और ऊदल का रण कौशल इतना अद्भुत था जैसे साक्षात् शिव ताण्डव कर रहे हों…
एक पंक्ति है-
“खींच तमाचा जेके हुमकैं निहुरल डेढ़ मील ले जाय”
आज ऐसे भारतीय होने लगें तो चीन को हम अंतरिक्ष में फेंक देते।
जीवन का वास्तविक सुख गाँव में ही है…मेरे मन में बसा छोटा सा साहित्यकार अक्सर अपना गाँव खोजता है…..मन तो उसका वहीं रमता है।
करीब चार साल हो गए सावन घर पर बिताए हुए…मेरठ में तो किसी मौसम का पता ही नहीं चलता…हमेशा पतझड़ का एहसास होता है…पता नहीं क्यों…
न यहाँ झूले दिखते हैं न हरे-भरे खेत..न धान की रोपाई करते लोग गीत गाते हैं…न ही मिट्टी में वो सोंधी सी खुशबू है जो मेरे गाँव में है।….आज फिर मन कह रहा है चलो कुछ दिन रहते हैं गाँव में…घुमते हैं खेतों में..भीगते हैं बारिश में…बन जाते हैं एक छोटा सा बच्चा..बच्चों की टोलियों में…शहर के बनावटीपन से दूर…चलो बिताते हैं कुछ पल…अपने साथ….अपनों के साथ…..।
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