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हम खड़े हैं यहाँ हाथ में जान
लिए
बुझ रहे हैं घरों में ख़ुशी के
दिए,
देश रौशन रहे हम रहे न
रहे
आखिरी साँस तक हम तो लड़ने
चले,
हम तो परवाने समां में जलने
चले।
हम को परवाह हो क्यों जान
की?
हम तो बाजी लगाते हैं प्राण
की,
मोहब्बत हमें अपने माटी से
है,
है शपथ हमको अपने भगवान्
की।
हाथ में जान लेकर निकलते हैं
हम
मौत के देवता से उलझते हैं
हम,
राहों में हो खड़ी लाख
दुश्वारियां
अपने क़दमों से उनको कुचलते
हैं हम।
हर तरफ दुश्मनों की सजी
टोलियाँ
हर कदम पर लगे सीने में
गोलियाँ
मौत की सज़ रही सैकड़ों
डोलियाँ,
हम तो खेलेंगे अब खून की
होलियाँ।
है कसम माटी की हम मरेंगे
नहीं
चाहे तोपों की हम पर बौछार
हो
कतरा-कतरा बहेगा वतन के
लिए
आख़िरी साँस तक यही हुँकार
हो।
सीमा पर हर क़दम काट डालेंगे
हम
मौत अग़र पास हो उसको टालेंगे
हम,
साँस जब तक चलेगी क़दम न
रुकेंगे
यम के आग़ोश में प्राण पालेंगे
हम।
इश्क़ होगी मुकम्मल वतन से
तभी
जब तिरंगे में लिपटे से आएंगे
हम
देश रौशन रहे हम रहें न
रहें,
मरते दम तक यही गुनगुनाएंगे
हम।
( देश के उन प्रहरियों के नाम मेरी एक छोटी
सी कविता… जिनकी वज़ह से देश की
अखण्डता और सम्प्रभुता सुरक्षित है..जो अपने
घर-परिवार से हज़ारों मील दूर बर्फ़ीले
पहाड़ियों पर जहाँ मौत ताण्डव करती है
दिन-रात खड़े रहते हैं, रेत के मैदानों में, आग
उबलती गरमी में खुद जलते हैं पर अपनी तपन से
हमें ठंढक देतें हैं….उनके लिए एक अधकचरी
सी_टूटी-फूटी कविता…एक अभिव्यक्ति
‘जवानों के लिए’ )
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