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विद्वता और अहंकार

वंदे मातरम्
वंदे मातरम्
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कुछ व्यक्ति जन्मजात विद्वान होते हैं। विद्वान तो छोटा शब्द है कुछ व्यक्ति विद्वता की पराकाष्ठा होते हैं। कभी स्वघोषित तो कभी एक वर्ग विशेष द्वारा मान्यता प्राप्त। इन्हें अपनी साधना पर इतना अहंकार होता है कि जैसे ये विशेष हों और बाकी अवशेष हों।
इन विद्वानों के कुछ सिद्धान्त होते हैं और कुछ आदर्श। सामान्यतः अपने ही वंश के किसी महापुरुष की बातों को सिद्धान्त मानते हैं और उन्हीं के सिद्धान्तों पर चलने की बात करते हैं, किन्तु यथार्थ इससे बहुत भिन्न होता है। वास्तव में सिद्धान्त नितांत गोपनीय विषय है जिसे आचरण में उतरा जाता है न कि उनका ढिंढोरा पीटा जाता है। व्यक्ति के आचरण से उसके सिद्धान्त परिलक्षित होते हैं न कि उनका स्वांग भरने से।
हर व्यक्ति में वंश विषयक अहंकार होता है, अपने पूर्वजों के सद्कृत्यों पर गर्व होता है, अपने पिता पर अभिमान होता है। ऐसी भावनाएं बुरी नहीं हैं किन्तु जिन आदर्शों पर चलकर पूर्वज महान कहलाये उन्हें अनुचित विधि से व्याख्यायित करना अपराध है।
जितने भी प्रसिद्ध और महान लोग हुए हैं उनके शिष्य उतने महान और प्रसिद्ध नहीं हो सके क्योंकि उन्होंने अपने गुरुदेव के उपदेश तो सुने पर उन आचरण करने की जगह उन वक्तव्यों के व्याख्याता बन गए। व्याख्याता बनते ही सृजनता समाप्त, उन्नति समाप्त। जो विषय आचरण के हों उन्हें व्याख्यायित और प्रचारित करने लगे तो स्वयं बृहस्पति भी यशहीन हो जाएँ फिर सामान्य मानव की बात ही क्या है।
जिसने कहा कि- “मेरा ये सिद्धान्त है” वास्तव में उसका कोई सिद्धान्त नहीं होता है।
सिद्धान्त वादियों की एक विशेषता होती है, ये परिपक्व और पूर्ण केवल स्वयं को मानते हैं।कोई अन्य इनकी भांति कार्य नहीं कर सकता। इनके निर्णय विधि सम्मत होते हैं और अन्य गलतियों के पोटली होते हैं।
ये जो करते हैं वही उचित होता है और दूसरे केवल गलत होते हैं।हों भी क्यों न, विद्वता और बुद्धिमत्ता के परिचायक तो केवल यही हैं।
इनके कुछ चिर-परिचित कथन होते हैं-
मेरा ये सिद्धान्त है। मुझसे ज्यादा जानते हो?
तुम क्या जानो? मुझसे अधिक उनके बारे में जानोगे?
तुम्हें पता क्या है? मुझसे ज्यादा पढ़े हो? मुझसे ज्यादा अनुभव है?
इत्यादि-इत्यादि।
अजीब लगता है न? किस बात का दम्भ, किस हेतु अहँकार? ज्ञान की कोई सीमा होती है क्या?
कभी-कभी इनकी बातें सुनकर श्रोताओं को लगता है कि कानों में इन्ही के सामने रूई ठूंस ले पर क्या करें औपचारिकता और शिष्टाचार भी कोई चीज़ है।
इन व्यक्तियों का एक कथन होता है-“मुझे झूठ से सख़्त नफरत है।”
कुछ भी कर लो पर मुझसे झूठ मत बोलो झूठे लोगों से मुझे नफरत है।
वास्तव में एक झूठ तो ये दुनिया भी है। पढ़ा नहीं अपने क्या ‘ब्रम्ह सत्यम् जगत् मिथ्या?’
इस हिसाब से तो समस्त संसार घृणा के योग्य है क्योंकि जिसे हम संसार कहते हैं वास्तव में तो वो है ही नहीं।
सब सपना है, एक पल में सब हमारे आँखों के सामने होते हैं अगले ही पल सब ओझल…ये संसार भ्रम नहीं, झूठ नहीं तो और क्या है? क्या नफरत है आपको इस झूठे ज़ीवन से?
सत्य बहुत सुन्दर होता है किन्तु कुछ सत्य हमें जानना भी नहीं चाहिए। ऐसे सत्य तो अकारण ही सबसे वितृष्णा पैदा करते हैं। जीवन झूठ और सच का संगम है, यहाँ विरले ही हरिश्चंद्र मिलते हैं और जो मिल जाते हैं वो स्वघोषित हरिश्चंद्र होते हैं यथार्थ में उन्हें भी झूठ से प्रेम होता है तभी तो वे इतने महान पद(हरिश्चंद्र) पर होते हैं।
एक और ख़ास बात होती है इनमें,गुस्सा इनकी नाक पर होता है। कब किस बात बार भड़क जाएँ परमात्मा भी नहीं जानते। इनका मिज़ाज़ बड़ा गजब का होता है। खुश हों तो सिर पे बिठा लें और नाराज़ हों पताल में भी जगह न दें। तात्पर्य यह कि इनका स्वाभाव बड़ा अव्यवस्थित होता है। कोई भी इनका कोपभाजन बन सकता है। ऋषि दुर्वासा के ये अनुयायी हैं इन्हें खुश रखना भी कठिन काम है।इनसे जितनी दूरी रहे उतना ही अच्छा है क्योंकि यथार्थ में इनके मापदण्डों पर ये स्वयं भी खरे नहीं उतरते।
ये किसी को भी अपमानित कर सकते हैं कहीं भी, कभी भी। आपके किसी अपने ने कोई गलती की हो भले ही उसकी गलती में किञ्चिद मात्र आपका योगदान न हो, आपका कोई मतलब भी उससे न हो फिर भी ये आपको उसकी गलती के लिए सुनाएंगे। आपके दुखती रग पर हथौड़ा जरूर चलाएंगे,भले ही उस आग में स्वयं भी जलें पर त्वरित रूप से तो आप मानसिक आघात के लिए तैयार तो नहीं होते।
ऐसे व्यक्ति बुरे नहीं होते इनके अंदर भी बहुत अच्छा इंसान होता है।बुरी होती है इनकी मनोवृत्ति जो इनके सारे किये कराये पर पानी फेर देती है। स्वघोषित लोकपाल वाली भ्रामक स्थिति इन्हें औरों की नज़र में बुरा बना देती है।
हम प्रायः देखते हैं कि हमें सुखद अनुभव कम याद रहते हैं और बुरे अनुभव ज्यादा। यह मानवीय प्रवित्ति है कि किसी का स्नेह,प्रेम भूल जाता है और क्रोध आजीवन याद रहता है क्योंकि अकारण क्रोध किसी को सहजता से स्वीकार्य नहीं होता।
सारी सुकीर्ति,सुयश मिट्टी में मिल जाती है पल भर के अमर्यादित आचरण से।
विद्वता श्रेष्ठतम् वरदान है प्रकृति का। सफलता आपके तपस्या का परिणाम है किन्तु ये दोनों निरर्थक हैं यदि आप व्यवहारिक नहीं हैं। थोड़ी समझ और थोड़ी मेहनत करके कोई भी सफल हो सकता है। कुछ किताबें कुछ सत्संग करके तथाकथित ज्ञानी भी बन सकता है जिसे जनता विद्वता का नाम दे देती है किन्तु व्यवहारिकता की कोई पाठशाला नहीं होती। इसे सीखने के लिए विनम्र होना पड़ता है। शून्य से सीखना पड़ता है। आपका गुरु आपके घर से कूड़ा उठाने वाले से लेकर सड़क पर भीख़ मांगने वाला छोटा बच्चा भी हो सकता है।
इसे सीखा नहीं आत्मसात किया जाता है।
स्मरण रहे लोग आपसे आपके सफल होने की वजह से नहीं जुड़ते, सब सफल होते हैं अपनी-अपनी भूमिका में। आपकी व्यवहारिकता और विनम्रता के कारण लोग आपसे जुड़ते हैं। कहीं से भी आपके वास्तविक स्वरुप का उन्हें ज्ञान हो जाये तो आपसे दूर होते उन्हें समय नहीं लगेगा।
मानव होना अपने आप में एक वरदान है। विधाता के इस वरदान का अपमान न करें। मानवता क्रोध,अहँकार,वितृष्णा,घृणा जैसी भावनाओं का नाम नहीं केवल प्रेम, विनम्रता और व्यवहारिकता का नाम है।
इनसे अलग व्यक्ति सब कुछ हो सकता है पर इंसान नहीं। कुत्सित मनोवृत्ति आपको जानवर बना सकती हैं इंसान नहीं।निर्णय आपको करना है कि आपको मानवता से प्रेम है या पैशाचिकता से? आपके सामने दो विकल्प हैं यह तो आपकी मनोवृत्ति ही जाने कौन सा मार्ग आपको अभीष्ठ है।
नीति कहती है कि निम्न मनोवृत्ति व्यक्ति के उत्थान में अवरोध उत्पन्न करती है…..आपको पतन से स्नेह तो नहीं?

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