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अवसरवादी राजनीति

वंदे मातरम्
वंदे मातरम्
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भारतीय राजनीति अवसरवादिता की राजनीती है.यहाँ मुद्दों को भुनाने की कवायद चलती है.राजनीतिक पार्टियां जनता की नस पकड़ने में सिद्धहस्त हैं.विरोधियों के हर गतिविधि पर इनकी बड़ी पैनी नज़र होती है.इन दिनों सबसे ज्वलंत मुद्दा किसानो की दुर्दशा है.आम जनता की कोई पार्टी हितैषी नहीं है.चाहे वो भाजपा हो या कांग्रेस हो या अन्य प्रादेशिक पार्टियां हों. सबका बस एक मकसद होता है कि कैसे जनता को उल्लू बनाया जाए,बेवक़ूफ़ जनता हर बार उल्लू ही बनती है.राजनीतिक पार्टियों को पता है कि जनता को भावनाओं में कैसे बहाया जाता है उनसे कैसे सहानुभूति ली और दी जाती है? जिस जनता के भरोसे सत्ता हासिल होती है सत्ता में आते ही उसी जनता को भूलना हर पार्टी अपना राजधर्म मानती है.
राहुल गांधी जी का महीनो के गुमनाम प्रवास के बाद अचानक से किसानों के हमदर्द बनकर रामलीला मैदान में जनसभा करना कितनी सोची समझी रणनीति लगती है? उनके प्रवास से पहले ही केंद्र सरकार ने भूमि अधिग्रहण कानून पर अपना रुख साफ़ कर दिया था तब कांग्रेस पार्टी चुप क्यों थी? कई महीनो के आत्ममंथन के बाद राहुल गांधी को किसानों की पीड़ा दिखी? तब मौन क्यों थे? धरना क्यों नहीं दिए? क्या इतने महीने गायब रहने के बाद किसी एक्टिंग स्कूल से एक्टिंग सीख कर भारतीय जनता के सामने अपने अभिनय की कला दिखाने आये हैं?
महीनो से सोयी पड़ी कांग्रेस पार्टी मुद्दे भुनाने की ताक में लगी है, राम लीला मैदान में उमड़ी अथाह भीड़ इस बात इस साक्षी है की जनता मोदी सरकार से चोट खायी हुई है और अब अपना उद्धारक कांग्रेस में देखने की हिम्मत कर रही है. दिल्ली में रामलीला मैदान का दृश्य बड़ा हास्यास्पद रहा.जिन्होंने सपने में भी खेत नहीं देखा है उनके कन्धों पर हल देखकर जनता असमंजस में पड़ गयी कहीं कांग्रेस के युवराज राजनीति से सन्यास लेकर किसानी तो नहीं करने जा रहे? खैर कुछ देर बाद उन्होंने खुद ही हल को बैकग्राउंड में भेज दिया और किसानों को संकेत भी दिया कि सत्ता में लौटते ही हम किसानों को बिलकुल भारतीय जनता पार्टी की तरह बैकग्राउंड में भेजेंगे.क्या शानदार वापसी है कांग्रेस पार्टी की. मनमोहन सिंह, राहुल गांधी, सोनिया गांधी सारे शिखर के नेता जमीन पर जनता के साथ, क्या अद्भुत सयोंग था.
कांग्रेस पार्टी का ये सियासी ड्रामा हफ़्तों चैनलों की टी.आर.पी बढ़ाएगा.अख़बारों में सुर्खीयों में राहुल गांधी कुछ दिन तक रहेंगे. जनता की नब्ज़ पकड़ना इसे कहते हैं.सत्ताधारी पार्टी कितनी भी विनम्रता से अपनी बात भले ही क्यों न कहे पर विपक्ष की कड़वी बात भी जनता को सत्ताधारी पार्टी की बातों के अपेक्षा मीठी लगती है.मोदी सरकार से जनता के रूठने की वजह सिर्फ यही नहीं है की वादे पूरे नहीं किये गए तथ्य यह है कि किसानो की सुरक्षा के लिए कोई ठोस कदम नहीं उठाये गए.किसानों की आत्महत्याएं नहीं रुकीं, बैंकों ने उन्हें कोई राहत नहीं दी फिर काहे की सरकार? जिन उम्मीदों के लिए जनता ने मोदी को चुना उन्ही उम्मीदों का गला घुटते जनता देख रही है.
विपक्ष में बैठी हर पार्टी स्वयं को किसानों का सच्चा हमदर्द कहती है, जब तक विपक्ष में बैठती है तबतक जनता की सेवा राजधर्म होता है किन्तु सत्ता हथियाते ही किसान विपक्ष के विषय हो जाते हैं. भारतीय जनता ऊब कर वोटर करती है. एक से मार खाती है तो दुसरे को गले लगाती है. चुनाव उम्मीदों का गला घोटने के लिए कराये जाते हैं.इस राजनीति ने जनता को हर बार छला है.क्या छला जाना ही भारतीय जनता की नियति है?
मोदी सरकार की आम जनता के प्रति भावनाएं दिख रही हैं, मेक इन इंडिया का नारा गले के निचे नहीं उतर रहा है.ये निःसंदेह उद्योगपतियों की सरकार है.
राहुल गांधी का अचानक से ह्रदय परिवर्तन हो किसान प्रेमी होना कुछ जम नहीं रहा है. एक बड़ा तबका उन्हें आज भी युवराज सम्बोधित करता है तो फिर भला प्रजातंत्र में राजशाही का क्या काम? केंद्र सरकार को पग यात्रा की धमकी देकर डराना जनता को छलना ही है,जनभावना भाषणों से अर्जित नहीं की जा सकती, कांग्रेस पहले जनता की पसंद बने फिर प्रतिनिधि बनने की कोशिश करे नहीं तो परिणाम फिर शून्य के आसपास हो तो कुछ भी अप्रत्याशित नहीं होगा.
मोदी सरकार अच्छे दिनों का राग अलाप रही है बेहतर होगा अपने राजनीतिक एजेंडे में सुधार करे नहीं तो जनता अगले चुनाव में विपक्ष की राह भारतीय जनता पार्टी को दिखाने में देर नहीं लगाएगी.

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