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ये कैसा धंधा है?

वंदे मातरम्
वंदे मातरम्
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आज इंसान भले ही चाँद पर पहुँच चुका हो, आधुनिकता और विज्ञान अपने चरम सीमा पर हों पर इंसान के लिए भविष्य आज भी एक अनजान पहेली की तरह है ऐसी पहेली जो सुलझती नहीं। हर कोई भविष्य जानना चाहता है, अपने आने वाले कल में जाना चाहता है। भविष्य एक रहस्य है जो बहुत आकषर्क होता है। प्रायः लोग भविष्य जानने का प्रयत्न भी करते हैं बस कोई एक भविष्यवक्ता दिख जाए लोग पहुँच जाते हैं भविष्यवक्ता के चरणों में मानो सम्पूर्ण ब्रम्हाण्ड का विपद इनके हाथों ही लिखा हो। भाविष्यवक्ताओं का आत्मविश्वास अनुकरणीय होता है। बोलते ऐसे हैं जैसे कि विधाता अपने सारे काम इन्ही से पूछ कर करते हों। झूठ की भी हद होती है पर ये लोग उनमे से हैं जो हदों को मानते ही नहीं। यह कहना सर्वथा अनुचित होगा कि इस यह विधा झूठी है, इसके अधिष्ठाता लोग झूठे हैं जो अपनी रोटी सेंकने के लिए दूसरों के भावनाओं से खेलते हैं। निःसंदेह ज्योतिष विद्या बड़ी चमत्कारिक विधा है। विद्वानों के बातों का प्रभाव कई बार जीवन में स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है। उनके द्वारा निर्देशित कर्म एक व्यथित व्यक्ति को शांति भी पहुँचाते हैं। विडम्बना इस बात की है कि भारत में हर दूसरा व्यक्ति अपने आपको विद्वान समझता है। कुछ ऐसे ही विद्वान व्यक्ति अपने जैसा एक और विद्वान बना देते हैं। बात विद्वता तक रहे तो ठीक है पर जब नए विद्वान को ज्ञान मिलता है अनर्थ तब शुरू होता है। ज्योतिष विद्या विशुद्ध गणित और आस्था का विषय है।किन्तु जब आस्था धंधा होने लगे तब? भारत में आस्था भी धंधा का विषय है अन्यथा धर्म का कारोबार इतनी फलता-फूलता नहीं। व्यथित कौन नहीं है? जब विपदा चारो तरफ से पड़ती है, जब व्यक्ति हारने लगता है तब उसे भगवान् याद आते हैं। कुछ अपवाद भी हैं जिन्हें हर परिस्थिति में भगवान् अभीष्ठ हैं, किन्तु ऐसे लोग गिनती के हैं। हमारे धर्मग्रन्थ कहते हैं कि भगवान् कण-कण में हैं। भगवान् सर्वव्यापी हैं, सबकी सुनते हैं फिर भगवान को सुनाने के लिए माध्यम की आवश्यकता क्यों? भक्ति का दलाली से कैसा रिश्ता? भक्तों की बात भगवान् तक पहुँचाने वालों की कोई कमी नहीं है। थोडा पैसा और थोडा यश मिलते ही भगवान और भाग्य के प्रतिनिधि टेलीविज़न पर आने लगते हैं। सुबह-शाम बाबा जी का दरबार सजने लगता है। इनके भक्तों की लंबी कतारें लगने लगतीं हैं। बाबा कहते हैं-बेटा ये कर वो कर, यहां जा-वहां जा। ऐसे बाबाओं की प्रसिद्धि सीमा पार भी जाती है। कलियुग में भक्त कम और अंधभक्त ज्यादा हैं। इन भगवान के प्रतिनिधियों को कई बार कारागार की सैर भी करनी पड़ती है अपनी सांस्कृतिक गतिविधियों के कारण, पर शीघ्र ही मुक्त कर दिए जाते हैं । भाई! इनकी पहुँच तो विधाता तक होती है। हाँ, कुछ ऐसे भी हैं जो खानदान सहित कारागार में हैं। असल में वे उनमे से हैं जो भक्ति की उस अवस्था में हैं जहाँ भक्त और भगवान एक हो जाते हैं। भक्त स्वयं को भगवान समझ बैठता है और भगवान स्वयं को भक्त। खैर उनकी भक्ति ही निराली है। भगवान् के प्रतिनिधियों का धंधा कभी मंद नहीं होता है। साल के बारह महीने इनकी चांदी रहती है। दुःख के हिसाब से दाम लगाये जाते हैं । जितना दुःख उतना दाम। कभी राहु रूठते हैं तो कभी केतु। इनके शांति के लिए व्यक्ति ज्योतिषियों, भगप्रतिनिधियों(जैसे जनता के प्रतिनिधि जनप्रतिनिधि वैसे भगवान के प्रतिनिधि भग प्रतिनिधि) का सहारा लेता है पर परिणाम शून्य का शून्य रहता है। किसी से दस हज़ार तो किसी से बीस हज़ार, भगवान के दाम भी यजमान देखकर लगाये जाते हैं। ग्रहों का रूठना-मानना समय का चक्र न होकर सौदा हो गया है। ग्रह भी घूस खाते हैं। देखो भारत से भ्रष्टाचार कहाँ तक पहुँच गया। ठेकेदारों ने सलाह देने के भी दाम लगा रखे हैं। पांच सौ रुपये मे बाबा जी बस दस मिनट सलाह देंगे। ग्रह शांति तो बिना पाँच हज़ार बाबा जी को अर्पित किये बिना होते ही नहीं, पाँच हज़ार तो शुरुआत के होते हैं बाद में तो बढ़ते रहते हैं बाबा जी के निर्देशानुसार। आम आदमी की जेब से इतने पैसे निकल जाएँ तो अपने-आप ही ग्रह शांत हो जाते हैं। आज-कल आस्था विज्ञापन की विषय-वस्तु हो गयी है। कई टी.वी चैनलों पर एक चुड़ैल जैसी अम्मा आती हैं। बड़ी हाई-फाई व्यवस्था है उनकी। समाधान फ़ोन पर ही कर देती हैं और अपने किताब के लिए मोटा पैसा वसूलती हैं। अगर आप मुफ़्त वाले चैनल पर कोई फ़िल्म पूरे मनोयोग से देख रहें हों और इनका विज्ञापन अचानक से आ जाए तो इन्हें डंडे मारने का मन करेगा। एक मोटा तगड़ा बाबा भी विज्ञापन में दिखते हैं। दुनिया के पहले और आखिरी व्यक्ति हैं जो दुनिया के सभी समस्याओं का विनाश एक ही पन्ने में कर देते हैं। पूरी किताब पढ़ते-पढ़ते तो आदमी सफलता का पर्याय बन जाता है इनके दावे के अनुसार। बहुत दुःख होता है हम भारतीयों की बुद्धि घास चरने क्यों चली जाती है? असफल होने का कारण खोजने के बजाय पाखंडियों के चंगुल में फंसते हैं और अंततः भगवान् की सत्ता पर ही प्रश्न उठाते हैं। हद है इंसानी फितरत भी बिन ठोकर खाए आँख नहीं खुलती।

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