Menu
blogid : 14028 postid : 815594

छिनती मासूमियत(ये कैसी मज़बूरी?)

वंदे मातरम्
वंदे मातरम्
  • 101 Posts
  • 238 Comments

मेरे घर के ठीक पीछे महतो काका का घर है। वैसे तो नाम है भुन कन चौधरी पर गावँ में उनकी प्रसिद्धि महतो के नाम से है। अवध में महतो को अपने बिरादरी का न्यायाधीश कहा जाता है। सीधे शब्दों में किसी भी जाति का महतो वह व्यक्ति होता है जिसके अधीन उस जाति की न्यायपालिका,विधायिका और कार्यपालिका तीनों आती हों और जिसके वक्तव्य ही संविधान हों।
महतो काका के साथ ऐसा कुछ नहीं है, कभी अपने बिरादरी के महतो हुआ करते थे पर अब उनके बेटे ने दूसरी जाति के महिला से शादी कर ली तो उनकी महतो वाली शाख छिन गयी। अब वो अपने बिरादरी के सबसे अधम व्यक्ति समझे जाते हैं।
महतो काका के तीन बेटे हैं। दो लड़के जिन्होंने अपने बिरादरी में शादी की है पर अव्वल दर्ज़ के स्वार्थी हैं, और तीसरा ऐसा है जिसने मेरे गावँ के ही एक लड़की से शादी की है जो पहले से शादी शुदा थी और एक -दो बच्चे भी थे, ये भी जनाब कम नहीं हैं इन्होंने भी अपनी पहली पत्नी और अपना बड़ा बेटा छोड़ कर नया घर बसाया है। महतो काका ने पता नहीं क्या सोच कर उसे अपने घर से निकाल दिया और मेरे घर के सामने मिठाई काका की जमीन पर बसने का तुगलकी फरमान दे दिया।
हाँ तो तीसरे मियाँ के बेटे का नाम राजेश है, राजेश चौधरी। उम्र यही कोई सात-आठ साल। बाप ने नया परिवार बसा लिया है तो अपने पुराने बेटे को क्यों याद करेगा? कुल मिलाकर राजेश की परवरिश की जिम्मेदारी महतो काका पर है।काका दमा के मरीज़ हैं तो महीने में दो से तीन हज़ार रुपये फुंक जाते हैं। तीन बेटे हैं पहला जुआरी, दूसरा शराबी और तीसरा दीवाना; सो मदद की तो कोई गुंजाइश भी नहीं है। खुद साठ पार है वो भी जीर्णकाय तो आमदनी की बात ही क्या की जाए। दोनों टाइम काकी घर से खाना ले जाती है। किसी तरह घर चल रहा है।
राजेश गावँ के प्राइमरी स्कूल में पढता था जब तक मैं घर पर था। तीन साल से मेरठ में हूँ तो गावँ से संपर्क टूटा हुआ है। इस बार दीपावली मनाने घर गया था तो पता लगा राजेश भी आज ही आगरा से आया है। मैंने घर पर पुछा की आगरा क्यों गया था तो अम्मा(दादी) ने बताया कि कमाने गया था। एक सात साल का बच्चा पूरे सात महीने बाद घर आया था। तीन-तीन हट्ठे-कट्ठे जवान बाप होते हुए भी अनाथों की तरह काम पर भिड़ा था। परिवार में उसके चाचा और दादा के बच्चे विद्या मंदिर में पढ़ते हैं और वो आगरा में जूठे बर्तन माँजता है, hotel मालिक से पिटता है। उसकी हालात देख कर उसके बाप के लिए दिल से गाली निकलती है, बाप के सक्षम होते हुए भी एक मासूम सा बच्चा पढ़ाई-लिखाई और अच्छे परवरिश की जगह दर-दर की ठोकर खाने पर मज़बूर है। यह मज़बूरी उसकी अपनी नहीं है बल्कि थोपी गयी है। इसमें दोषी सिर्फ उसके घर वाले ही नहीं हैं , दोषी मेरे घर वाले भी हैं।
चायपत्ती से लेकर सब्ज़ी तक राजेश से मँगाई जाती है,और भी बच्चे हैं पर राजेश सबसे बुद्धिमान और ईमानदार है इसलिए पैसे वाले काम उसे ही सौंपे जाते हैं। राजेश फिल्मों का बड़ा शौक़ीन है। बिजली आते ही भगा आता है फ़िल्म देखने। अब तो उसे रिमोट से चैनल बदलने भी आ गया है, कुछ दिन उसके साथ रहा तो मैंने उसे पूछा कि, ‘राजेश रे ते का करत रहे आगरा में?’ तो उसका जवाब था-‘भइया कुछु नाहीं खाली पानी पियावत रहेन और बर्तन धोवत रहेन।’ मैंने पुछा कि- केतना पवत रहे?(पैसा)’ तो उसने कहा कि- ग्यारह सौ।
फिर पुछा कि ‘केहु परसान तो नाहीं करत रहा?’
उसने रोकर जवाब दिया,जवाब सुनकर मैं सुन्न हो गया। आदमी किस हद तक गिर सकता है एहसास हुआ। एक मासूम सा बच्चा जिसे कुछ भी समझ नहीं उससे बेहूदगी? इंसान ऐसे होते हैं तो जानवर ही हमसे बेहतर हैं। राजेश वहां से घर आ गया, जो उसे ले गया था उसने उसे सही सलामत घर पहुँचा दिया।
मेरे पापा और भइया दोनों अधिवक्ता हैं। पापा की हर बात लोग मानते हैं, पापा कानून कम बताते हैं पर मानवता अधिक सिखाते हैं मेरे समझ में ये नहीं
आया कि बाल-श्रम जैसा कृत्य जिसके लिए बच्चे के अभिभावक ही जिम्मेदार होते हैं पापा ने उन्हें क्यों नहीं समझाया की बाल-श्रम भी अमानवीय कृत्य है?
भइया भी मानव अधिकारों की बात करते हैं पर उन्होंने भी रोका नहीं उसे बाहर जाने से? खैर इस बारे में मैंने भी कभी पाप या भइया से कुछ नहीं पूछा, गलती मेरी भी है। मैं दोष नहीं मढ़ रहा पर कष्ट होता है। मुझे बार-बार याद आता है जब राजेश पहली बार स्कूल गया था और स्कूल से आकर मैंने उसे बुलाया- राजेश चौधरी!, उसका मासूम सा तुलतुलाते हुए जवाब आया- तिली मान!(श्री मान!)।
लाख कैलाश सत्यार्थी पैदा हो जाएँ,भारतियों को नोबल पुरस्कार मिल जाए, लाख गैर सहकारी संस्थाएं खुल जाएँ पर जब तक हम नहीं चाहेंगे समाज का यह रोग मिटेगा नहीं।
एक मेरे कॉलेज के कैंटीन में भी बच्चा काम करता है, पढ़ने की उम्र में हाथ में जूठी प्लेट्स और भीगा कपड़ा थाम लिया है। उसे भी घर वालों ने भेज है वो भी जबरदस्ती। कहता है पढ़ने का मन नहीं करता। पैसा भी कमाल की चीज़ है जो न करा दे।
बच्चे और भी हैं कुछ सड़क पर भीख़ मांगते हुए दिखते हैं तो कुछ मंदिरों में। कोई काम कर रहा है तो कोई भीख मांग रहा है। किसी के सिर पर छत नहीं तो कोई ठंढ़ से मर रहा है। कुछ यही मेरे देश की तस्वीर है।इसे धुंधली कहूँ या साफ़ समझ में नहीं आता पर मन बार-बार कहता है-
“मेरे देश तुझे हुआ क्या है,
तेरे इस दर्द की दवा क्या है??”

Read Comments

    Post a comment

    Leave a Reply