वंदे मातरम्
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झुरमुट की ओट में बैठकर
तुम्हारे आने का
बाट जोह रहा हूँ
और
तुम हो
कि
खिसकते जा रहे हो
मुझसे दूर- कोसों दूर.
रात-दिन
काल -समय
सब पीछे छूट गए,
बढ़ना चाहता हूँ
लक्ष्य विहीन पथ की ओर,
कहीं
किसी अज्ञात दिशा में
तुम्हे खोजने,
तुमसे
अगाध प्रेम जो है.
सुना है समय से मैंने
युग बीत गए
एक नहीं अनेक
पर तुम्हारी दशा
यथावत रही,
जग ने तुमसे प्रेम किया
और तुम
हाथ न आये किसी के.
मैं हठधर्मी हूं
पराजय सहज
स्वीकार नहीं,
प्रेम किया है
उनसे जो बंधनों
से उन्मुक्त हैं,
सुना है कि
”प्रबल प्रेम के आगे
सब विवश होते हैं”
शायद तुम भी
सब में आते हो…
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