वंदे मातरम्
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दूर्वा हूँ, मै घास हूँ,
सदा से कुचली
जाती हूँ,
हर कोइ कुचल के
चला जाता है,
मैँ जीवन देने वाली
हूँ ,
पर मेरा जीवन
दासता मेँ बीतता है,
कभी पति की,
कभी सास की,
लोग ताने देते हैँ,
और मै सहती हूँ,
डर से नही
मेरा स्वभाव ही ऐसा है.
कष्ट मुझे तब होता है,
जब मेरा जन्मा बेटा ही मुझे अपशब्द कहता है.
और मैँ बस
देखती रह जाती हूँ,
मुझे अब सहना बँद करना है, क्योँकी सहने की एक सीमा होती है,
और उस सीमा को
पुरुष पार कर चुका है.
अब झुकी तो मिट जाऊँगी .
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