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बचपन

वंदे मातरम्
वंदे मातरम्
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” जब मैं छोटा बच्चा था
बस्ते में किताबें होती थी,
हम चलते चलते थकते थे
राहें कंकर की होती थीं .
टेढ़े मेढ़े पगडंडी पर हम
अक्सर गिर जाते थे ,
सड़कों को पैर से मार मार कर
भैया दिल बहलाते थे.

मैं तो रो पड़ता था हरदम
आग उगलती गर्मी से,
भैया मुझको गोद उठता
मम्मी जैसी नरमी से.
जिन राहों से हम आते थे
थे वे बंजारों के डेरे ,
हम सब उनको दिख भर जाएँ
दौड़ -दौड़ कर हमको घेरें.
जब हम उनको दिख जाते थे ;
मोटी मोटी लाठी लेकर,
आस पास मंडराते थे,
तब जब पीछे से एकदम,
भैया जब आ जाता था,
सबको मार मार कर,
ताड़ी पार कर आता था ,
मुझको अब भी याद आती हैं,
भूली बिसरी सारी बातें ,
जाने क्यों चुप चाप कही से ,
भर आती हैं मेरी आँखें ,
आज बदल गया है सब कुछ ,
सब कुछ फीका फीका है,
मतलब की दुनिया है यारों,
कोई नहीं किसी का है ,
अब भी पढ़ते हैं हम सब,
सब कुछ बदला बदला है,
कही धुप कही छावं है,
कुछ भी नहीं सुनहरा है,
सड़के पक्की हो गयी अब तो ,
पर उनमें है खाली पन,
मुझको अक्सर याद आता है,
अपना प्यरा प्यारा बचपन ……”

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