वंदे मातरम्
- 101 Posts
- 238 Comments
रात के अँधेरे मेँ,
ख़ामोशी
कुछ इस कदर
पाँव
पसारती है
कि,
समझना
मुश्किल हो जाता है
कि
ख़ामोश हम हैँ
या रातेँ ?
अनजान राहोँ पर,
ड़गमगाते
कदमो के सहारे
मँजिल तलाशना
मक्कारी
लगता है
फिर भी
हर रोज निकलता हूँ
तलाश मेँ,
कभी गिरता हूँ
कभी
गिरा दिया जाता हूँ ,
मीलोँ भटकता हूँ
पर
अफसोस
मँजिल फिर भी दूर लगती है.
रोशनी मिलती नहीँ,
अधेरे मेँ
कुछ सूझता नहीँ
पर
ज़िद है फिजा मेँ
घुली हुई विरानियोँ
के सहारे,
मँजिल पाने की
जानता हूँ
खामोशियाँ कुछ नहीँ कहतीँ
पर
इक उम्मीद है
कि
इनके बिना कहे,
सुन लुँगा
मँजिल की पुकार.
Read Comments